घर-घर सिंदूर अभियान: "सनातन मूल्यों का मखौल या सस्ता प्रचार?" - जनसच न्यूज़

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Thursday, May 29, 2025

घर-घर सिंदूर अभियान: "सनातन मूल्यों का मखौल या सस्ता प्रचार?"

उत्तर प्रदेश- सनातन धर्म, जिसके मूल में संस्कृति, परंपरा और आध्यात्मिकता का गहरा समन्वय है, आज एक बार फिर राजनैतिक मंचों पर सस्ते नारों और प्रचार के हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। "घर-घर सिंदूर" जैसे शब्द, जो सुनने में सनातन संस्कृति की गूंज पैदा करते हैं, वास्तव में क्या संदेश दे रहे हैं? क्या यह सनातन धर्म की गहरी समझ और सम्मान का प्रतीक है, या फिर केवल वोट बैंक की खातिर पवित्र परंपराओं का दुरुपयोग? और कहीं, अगर "घर-घर सुहागरात" जैसे शब्दों को हवा दे दी जाए, तो क्या यह सनातन मूल्यों का अपमान नहीं? यह सवाल हर उस व्यक्ति के मन में उठना चाहिए जो सनातन धर्म को केवल नारा नहीं, बल्कि जीवन का आधार मानता है।सिंदूर, सनातन परंपरा में सुहागिन स्त्री के लिए पवित्रता, समर्पण और वैवाहिक बंधन का प्रतीक है। यह न केवल एक रंग है, बल्कि एक संस्कृति का हिस्सा है, जो पति-पत्नी के बीच विश्वास और प्रेम की नींव को दर्शाता है। लेकिन जब इसे "घर-घर" बाँटने की बात की जाती है, तो क्या यह पवित्र प्रतीक अपनी गरिमा खो नहीं रहा? क्या यह सनातन धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा है, या फिर सस्ते प्रचार का हथकंडा, जो धार्मिक भावनाओं को भुनाने का प्रयास करता है? और अगर इस तरह की बातें आगे बढ़कर "सुहागरात" जैसे अत्यंत निजी और पवित्र अवधारणा को सार्वजनिक मंचों पर उछाला जाए, तो यह सनातन संस्कृति का कितना बड़ा अपमान होगा?सुहागरात, जो सनातन परंपरा में नवविवाहित दंपति के बीच पवित्र और निजी क्षणों का प्रतीक है, इसे सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाना न केवल अशोभनीय है, बल्कि यह 

सनातन मूल्यों के प्रति घोर असंवेदनशीलता को दर्शाता है। क्या हमारी संस्कृति इतनी सस्ती हो गई है कि इसके पवित्र प्रतीकों को राजनैतिक मंचों पर मजाक का विषय बनाया जाए? क्या यह सनातन धर्म के प्रति श्रद्धा है, या फिर उसका मखौल उड़ाने का प्रयास? यह वही संस्कृति है, जिसने स्त्री को देवी का दर्जा दिया, जिसने विवाह को सात जन्मों का बंधन माना, और जिसने हर रीति-रिवाज में गहरे दार्शनिक अर्थ समेटे हैं। लेकिन आज, इन रीति-रिवाजों को केवल वोट बटोरने का जरिया बनाया जा रहा है।जब कोई नेता या नीति-निर्माता इस तरह की बातें करता है, तो वह न केवल सनातन धर्म की गरिमा को ठेस पहुँचाता है, बल्कि उन लाखों लोगों की भावनाओं को भी आहत करता है जो इस धर्म को अपने जीवन का आधार मानते हैं। यह समय है कि हम सवाल उठाएँ: क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है कि इसे हर बार राजनैतिक नारों में उलझाया जाए? क्या हमारा समाज इतना असंवेदनशील हो गया है कि पवित्र प्रतीकों को मजाक का विषय बनने दें? और सबसे बड़ा सवाल—क्या हम चुप रहकर इस अपमान को सहन करेंगे?सनातन धर्म केवल नारों और प्रचार का साधन नहीं है। यह एक जीवन दर्शन है, जो हमें मर्यादा, सम्मान और आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाता है। इसे सस्ते प्रचार के लिए इस्तेमाल करना न केवल धर्म का अपमान है, बल्कि उस समाज का भी अपमान है जो इस धर्म पर गर्व करता है। अगर आज "घर-घर सिंदूर" का नारा है, और कल "घर-घर सुहागरात" की बात हो, तो हमारी संस्कृति का क्या होगा? यह समय है कि हम अपनी आवाज उठाएँ और अपनी परंपराओं को सस्ते नारों से बचाएँ। सनातन धर्म को बचाना है, तो उसे राजनैतिक मंचों से नीचे उतारकर फिर से हमारे दिलों और घरों में स्थान देना होगा।

श्याम सिंह ' पंवार '



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