गुमनामी की तरह जिले में रहे, काकोरी कांड के योद्धा
रिपोर्ट- संतोष यादव
सुल्तानपुर। जीते जी बड़ी शख्सियतें गुमनाम ही रहती हैं। उनकी कीमत लोगों को उनके जाने के बाद पता चलती है। काकोरी कांड में आजीवन कारावास की सजा पाए क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ बख़्शी भी जिले में गुमनामी की तरह ही रहे। बनारस में जन्में शचीन्द्रनाथ मूलत: बंगाली थे। कांड के बाद वे पुलिस की पकड़ से दूर रहे। जनवरी 1927 में भागलपुर से पकड़े गए। कांड के समय गार्ड की जान बख्शने के एवज में वह भी इन्हें नही पहचाना और उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई। रिहा हुए तो कांग्रेस ज्वाइन की बाद में जनसंघ से जुड़े, चुनाव लड़े और विधायक हुए। अस्सी के दशक में उनका नाता सुलतानपुर से हुआ। इसकी वजह उनके पुत्र राजेंद्रनाथ बख़्शी यहीं जलकल विभाग में इंजीनियर थे। उन्हीं के साथ वे रहते थे, लेकिन किसी से मिलते नही थे। बात उजागर तब हुई जब उन्हीं दिनों समाजसेवी करतार केशव यादव ने शहीद चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति का अनावरण तत्कालीन डीएम पुलक चटर्जी के हाथों कराई तो, बलिया से करतार को एक चिट्ठी मिली जिसमें लिखा था कि आजाद की मूर्ति का अनावरण सुलतानपुर में रह रहे आजाद के साथी शचीन्द्रनाथ बख़्शी से क्यों नही कराई? करतार उस क्रांतिकारी को ढूढ़ने में जुट गए। संयोग से एक दिन करतार की मुलाकात दादा बख़्शी के नौकर से हो गई। बात-बात में उसके मुंह से दादा बख़्शी वाली कुछ बात निकल गई। नौकर की बात से करतार को शक हुआ, उन्हें लगा कि उनकी तलाश पूरी हुई। जानकारी किया तो शक यकीन में बदल गया। वही क्रांतिकारी दादा बख़्शी थे। तत्कालीन डीएम पुलक चटर्जी की मदद से करतार उनसे मिले। बकौल करतार, 'ऐसे क्रांतिकारी से मिलना मेरी जिंदगी का सबसे ऐतिहासिक क्षण था।पहली मुलाकात में लगा कि जिंदगी का धेय्य पूरा हो गया। दादा बखशी ने 23 नवम्बर 1984 को सुलतानपुर में अंतिम सांस ली। लेकिन दुखद ये रहा कि उनकी शवयात्रा में चंद लोग ही शामिल रहे।गोमती नदी के किनारे उनका उनका अंतिम संस्कार हुआ। उनकी याद में शहीद स्मारक सेवा समिति के अध्यक्ष करतार केशव यादव की अगुवाई में जनसहयोग से शव यात्री कक्ष भी बनवाया गया।
इनसेट 1
तैराकी में उन्हें महारत हासिल थी
सुलतानपुर। क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ बख्शी को तैराकी में महारात हासिल थी। बताते हैं कि लूटी रकम लेकर शचीन्द्रनाथ बख्शी साथियों संग हथियारों की डिलीवरी लेने कलकत्ता पहुंचे। अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक, देश की समुद्री सीमा से बाहर का समुद्र किसी भी राष्ट्रीय नियम से मुक्त होता है। वहां का क्षेत्र उसी देश का माना जाता है, जिस देश का जहाज वहां होता है। तब भारत की समुद्र सीमा तीन मील थी अत: बिना अड़चन के पिस्तौलों का बंडल वहीं से छुड़ाया जा सकता था। दादा बख़्शी बंगाल की खाड़ी में समुद्र में तीन मील तैरकर अंदर गए और भुगतान देकर वहीं जहाज से ‘माउजर’ पिस्तौलें हासिल की, फिर अंधेरे में तैरकर वापस आ गए। बकौल करतार, 'दादा बख़्शी इन्हीं सब कहानियों का जिक्र अक्सर घर पर करते थे। पहली बार उनके नौकर से हमने भी समुद्र में तैराकी के किस्से सुने थे।
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